गोरखपुर एम्स ने एक बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि हासिल की है, जो देश और चिकित्सा जगत के लिए गर्व का विषय है। यहां किए गए एक अध्ययन को विश्व प्रसिद्ध “पबमेड जर्नल” में प्रकाशित किया गया है। पबमेड में केवल उन शोधों को शामिल किया जाता है जो वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण होते हैं और चिकित्सा क्षेत्र में नए मानदंड स्थापित करते हैं।

गोरखपुर एम्स में एनेस्थिसियोलॉजी विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. विजेता बाजपेयी के नेतृत्व में किया गया यह अध्ययन सर्जरी के दौरान रक्त के थक्के बनने से रोकने वाली दवाओं की प्रभावशीलता पर आधारित है। अध्ययन के तहत कुल 42 रैंडमाइज्ड कंट्रोल ट्रायल (RCTs) की समीक्षा की गई, जिसमें 11 अलग-अलग एंटीकोआगुलंट्स की तुलना की गई। शोध के परिणाम चौंकाने वाले हैं।

सर्जरी के दौरान इस्तेमाल की जाने वाली दवाएं

अध्ययन में यह पाया गया कि प्रमुख सर्जरी के दौरान इस्तेमाल की जाने वाली दवाओं में रिवरोक्साबैन, फोंडापारिनक्स, एडोक्साबैन और बेमिपेरिन जैसी दवाएं आमतौर पर उपयोग की जाने वाली एनोक्सापारिन से अधिक प्रभावी हैं। हालांकि, फोंडापारिनक्स और बेमिपेरिन का उपयोग करते समय रक्तस्राव का जोखिम अधिक पाया गया, जिसे चिकित्सकों को ध्यान में रखना होगा।

गोरखपुर एम्स का पहला नेटवर्क मेटा-विश्लेषण

यह शोध गोरखपुर एम्स का पहला नेटवर्क मेटा-विश्लेषण है, जो सर्जरी के दौरान होने वाले रक्त के थक्कों (वेनस थ्रोम्बोएम्बोलिज्म) को रोकने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इस प्रक्रिया में थक्कों को रोकने से गहरी शिरा घनास्त्रता (DVT) और फुफ्फुसीय अन्त: शल्यता (PE) जैसी गंभीर स्थितियों का जोखिम कम किया जा सकता है। DVT की स्थिति में पैरों की नसों में थक्के बनते हैं, जो यदि फेफड़ों तक पहुंच जाएं तो यह घातक PE का कारण बन सकते हैं।

शोध दल को दी बधाई

एम्स गोरखपुर के कार्यकारी निदेशक, डॉ. अजय सिंह ने इस उपलब्धि के लिए पूरे शोध दल को बधाई दी। उन्होंने कहा, “यह शोध न केवल गोरखपुर, बल्कि वैश्विक स्तर पर सर्जिकल देखभाल के मानकों को सुधारने में मदद करेगा। इस शोध से हमें साक्ष्य-आधारित चिकित्सा को और अधिक सशक्त बनाने का अवसर मिलेगा।”
डॉ. विजेता बाजपेयी ने अपने शोध दल को धन्यवाद देते हुए कहा कि, “यह अध्ययन सर्जरी के दौरान थक्कों को रोकने के वैश्विक प्रबंधन को प्रभावित करेगा और बेहतर चिकित्सा परिणामों के लिए नई दिशाएं खोलेगा।” इस शोध में डॉ. तेजस पटेल, डॉ. प्रियंका द्विवेदी और डॉ. अंकिता काबी का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा, जिन्होंने अध्ययन के हर चरण में अपना सहयोग दिया।